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अ॒स्मभ्यं॒ तद्व॑सो दा॒नाय॒ राधः॒ सम॑र्थयस्व ब॒हु ते॑ वस॒व्य॑म्। इन्द्र॒ यच्चि॒त्रं श्र॑व॒स्या अनु॒ द्यून्बृ॒हद्व॑देम वि॒दथे॑ सु॒वीराः॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

asmabhyaṁ tad vaso dānāya rādhaḥ sam arthayasva bahu te vasavyam | indra yac citraṁ śravasyā anu dyūn bṛhad vadema vidathe suvīrāḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒स्मभ्य॑म्। तत्। व॒सो॒ इति॑। दा॒नाय॑। राधः॑। सम्। अ॒र्थ॒य॒स्व॒। ब॒हु। ते॒। व॒स॒व्य॑म्। इन्द्र॑। यत्। चि॒त्रम्। श्र॒व॒स्याः। अनु॑। द्यून्। बृ॒हत्। व॒दे॒म॒। वि॒दथे॑। सु॒ऽवीराः॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:13» मन्त्र:13 | अष्टक:2» अध्याय:6» वर्ग:12» मन्त्र:3 | मण्डल:2» अनुवाक:2» मन्त्र:13


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (वसो) सुखों में वसाने और (इन्द्र) ऐश्वर्य देनेवाले विद्वान् ! (ते) आपके (वसव्यम्) धनादि पदार्थों में हुए (चित्रम्) अद्भुत (बृहत्) बड़ा बढ़ता हुआ (बहु) बहुत (राधः) सुखसाधक धन है (तत्) (अस्मभ्यम्) हमारे लिये (दानाय) देने को (समर्थयस्व) समर्थ करो जिससे (श्रवस्याः) सुनने के व्यवहारों में उत्तम (सुवीराः) सुन्दर शूरतायुक्त मनुष्य व गुणों से युक्त हम लोग (अनुद्यून्) प्रत्येक पराक्रमादि के प्रकाशों को (विदथे) संग्राम में (बृहत्) बहुत (वदेम) कहें ॥१३॥
भावार्थभाषाः - वे ही विद्वान् हैं, जो औरों को शरीर आत्मा बल के योग से समर्थ और धनाढ्य, शूरवीर, पुरुषार्थी करते हैं ॥१३॥ इस सूक्त में बिजुली, विद्वान् और ईश्वर के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह तेरहवाँ सूक्त और बारहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे वसो इन्द्र यत्ते वसव्यं चित्रं बृहद् बहु राधोऽस्ति तदस्मभ्यं दानाय समर्थयस्व येन श्रवस्याः सुवीरा वयमनुद्यून्विदथे बृहद्वदेम ॥१३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अस्मभ्यम्) (तत्) (वसो) सुखेषु वासयिता (दानाय) (राधः) साध्नुवन्ति सुखानि येन तत् (समर्थयस्व) समर्थं कुरु (बहु) (ते) तव (वसव्यम्) वसुषु) द्रव्येषु भवम् (इन्द्र) ऐश्वर्यप्रद (यत्) (चित्रम्) अद्भुतम् (श्रवस्याः) श्रवस्सु श्रवणेषु साधवः (अनु) (द्यून्) प्रकाशान् (बृहत्) महत् (वदेम) (विदथे) संग्रामे (सुवीराः) सुष्ठु शौर्योपेतैर्जनैर्गुणैर्वा युक्ताः ॥१३॥
भावार्थभाषाः - त एव विद्वांसो येऽन्यञ्छरीरात्मबलयोगेन समर्थान्धनाढ्याञ्छूरवीरान्पुरुषार्थिनः संपादयन्ति ॥१३॥ अस्मिन् सूक्ते विद्युद्विद्वदीश्वरगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति त्रयोदशं सूक्तं द्वादशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे इतरांना शरीर, आत्मा व बलाच्या योगाने समर्थ, धनाढ्य, शूरवीर व पुरुषार्थी करतात तेच विद्वान असतात. ॥ १३ ॥